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Lodurva jain mandir: जैसलमेर के खुबसूरत जैन मंदिर

भगवान् पार्शवनाथ को समर्पित ये खुबसूरत Lodurva jain mandir जैसलमेर से 20 किलोमीटर दूर लोद्र्वा में स्तिथ है, यही लोद्र्वा जैसलमेर से पहले भाटी राजपूतो की राजधानी हुआ करता था| ग्यारवी सदी में मोहम्मद गौरी और गजनी ने लोद्र्वा पर आक्रमण किया और इस शहर को तहस नहस कर दिया था| उनके आक्रमण के बाद सन 1156 में जैसलमेर की स्थापना हुई और भाटी राजपूतो ने लोद्र्वा से अपनी राजधानी स्थान्तरित कर ली|

गजनी और गौरी के आक्रमण से नष्ट हुई इमारतो में ये Lodurva jain mandir भी शामिल थे मगर आजादी के बाद देश विदेश में मौजूद जैन समाज के लोगो के योगदान के बाद इस मंदिर का जीर्णोद्वार किया गया| किसी समय आक्रमणों के डर से वीरान हुए लोद्र्वा में मौजूद ये लोद्र्वा के जैन मंदिर आज के समय में राजस्थान और आसपास के इलाको में जैन तीर्थ यात्रियों के बीच सबसे लोकप्रिय है|

जैसलमेर की अन्य इमारतो की तरह Lodurva jain mandir भी सुनहरे रंग का नजर आता है, क्यूंकि लोद्र्वा के जैन मंदिर को बनाने के लिए भी जैसलमेरी सैंडस्टोन का इतेमाल किया गया है| मंदिर के गर्भगृह में जैन तीर्थंकार पार्शवनाथ जी मूर्ति बनी हुई है जबकि मंदिर के चारो कोनो में अलग अलग तीर्थंकार को समर्पित 4 मंदिर है|

मंदिर में सबसे बड़ा आकर्षण है मंदिर में मौजूद कल्पवर्क्ष, मंदिर के शिखर पर बना ये वर्क्ष उन 14 रत्नों में से एक माना जाता है जो देवताओं के समुन्द्र मंथन के दौरान प्राप्त हुए थे| स्वर्ग का वर्क्ष माने जाना वाला ये वर्क्ष मंथन में प्राप्त होने के बाद भगवन इंद्र को दिया गया था जो उन्होंने हिमालय में किसी जगह लगा दिया था| हिन्दू धर्म में मान्यता है की कल्पवर्क्ष के निचे बैठकर जिस भी इच्छा से पूजा की जाती है वो पूर्ण हो जाती है क्यूंकि इस पेड़ में अपार सकारात्मक उर्जा होती है|

मंदिर के आर्किटेक्चर की बात की जाए तो बता दू के मंदिर की बाहरी और अंदर दोनों दीवारों के पत्थर पर बेहद सुंदर नक्काशी की गई है जो किसी को भी हैरान कर देगी| मंदिर के मुख्य द्वार पर खुबसूरत तोरण बना है जो की अंदर घुसते ही श्रधालुओ का स्वागत करता नजर आता है| 11 वी सदी में तहस नहस होने के बाद भी मंदिर शान से खड़ा है और उतना ही खुबसूरत है जितना उस वक्त होगा, नक्काशी से लेकर मूर्तिकला तक का सब काम बारीकी से किया गया है |